गौतमबुद्ध का जन्म
गौतमबुद्ध के जन्म के लिए एक कहानी प्रचलित है। उनके जन्म के समय एक प्रथा प्रचलित थी। जब किसी महिला को बच्चा होने को होता था तो वह अपने मायके चली जाती थी। उसी के अनुसार गौतमबुद्ध की मां महामाया अपने मायके जा रही थी और रास्ते में ही कपिलवस्तु राज्य के पास लुंबिनी वन में (नेपाल) उन्हें प्रसवपिडा होने लगी और वही एक पेड़ के नीचे गौतमबुद्ध का जन्म हुआ। उनके पिता सुद्धोधन, कपिलवस्तु के राजा थे। उनकी माता का नाम महामाया था लेकिन उनके जन्म के ७ दिन बाद ही उनकी माता की मृत्यु हो गई थी। उनका पालन पोषण उनकी मौसी महाप्रजापती गौतमी ने किया। जब उनका नामकरण किया जा रहा था अनेक साधुसंतो को बुलाया गया बालक को देखकर सभी ने एक ही भविष्यवाणी की कि यह बालक सिद्धिपुरूष बनेगा। राजा के पूछने पर उन्होंने बताया कि यह बालक या तो महान राजा बनेगा या महान साधु और जैसा कि आप जानते है सिद्धिपुरुष ज्यादातर साधुओं में होते है अतः इसके साधु बनने की बहुत संभावनाएं है। इस सिद्धपुरूष वाली बात पर उस बालक का नाम सिद्धार्थ रखा गया।
गौतमबुद्ध का प्रारंभिक जीवन
बालक सिद्धार्थ के पिता बहुत चिंतित थे उन्होंने अपने मंत्रियों की एक बैठक बुलाई। महाराज को चिंता थी कि कहीं राजकुमार साधू ना बन जाए। प्रधानमंत्री जी ने महाराज को सलाह दी कि हमें राजकुमार सिद्धार्थ को सामान्य जीवन से दूर रखना चाहिए। एक मंत्री ने सलाह दी कि राजकुमार के लिए तीनों ऋतुओं के लिए सभी सुखसुविधाओ से परिपूर्ण तीन महल बनाए जाएं। सभी दुखी और परेशान लोगो को उनसे दूर रखा जाए। मंत्री की बात महाराज को जाच गई। उन्होंने राजकुमार के लिए तीनों प्रकार के महल बनाने की आज्ञा दी।
राजकुमार सिद्धार्थ को उनमें रख दिया गया। पूरे भोग विलास में। जब भी राजकुमार को किसी चीज की आवश्यकता होती वह तुरंत हाजिर हो जाती। धीरे धीरे समय बीतता गया, राजकुमार सिद्धार्थ अब १६ साल के हो गए थे। उनकी शादी राजकुमारी यशोधरा से कर दी गई अब भी सब ठीक चल रहा था। राजकुमार सिद्धार्थ और यशोधरा के यहां एक पुत्र ने जन्म लिया उसका नाम राहुल रखा गया।
गौतमबुद्ध का व्यक्तित्व
गौतमबुद्ध बहुत ही दयालु व्यक्ति थे वे किसी को भी दुखी नहीं देख सकते थे ना ही इंसानों को ना ही जीव जंतुओं को। रेस लगाते समय जब यह देखते की घोड़े के मुंह से झाग आ रहे है तो वे उसे दौड़ के बीच में ही रोक देते और उसे आराम कराते और खुद रेस हार जाते।
गौतमबुद्ध किसी को भी दुखी नहीं देख सकते थे। वे अपने मित्रो के साथ खेलते समय खुद ही हार जाते थे जिससे हारने के कारण उनके मित्र को दुख ना हो।
एक बार गौतमबुद्ध देखते हैं कि एक बिच्छू पानी में गिर गया है उन्होंने उसे पानी से बाहर निकालने के लिए जैसे ही उसे छुआ। बिच्छू ने गौतमबुद्ध को डंक मार दिया। दोस्तो ने कहा कि छोड़ दो उसे। गौतमबुद्ध ने कहा कि जब ये इतना छोटा जीव होकर अपना कर्म नहीं छोड़ रहा तो मै कैसे अपना कर्म छोड़ दू। और उन्होंने बिच्छू को पानी से बाहर निकाल दिया।
एक बार उनके छोटे भाई देवदत्त ने उड़ते हुए हंस का तीर से शिकार किया। वह हंस तीर लगते ही नीचे की ओर गिर गया उसे गौतमबुद्ध ने उठा लिया। उन्होंने हंस के शरीर से तीर निकाल कर उसकी मररहम पट्टी की। जब राजकुमार देवदत्त ने हंस मांगा तो गौतमबुद्ध ने देने से मना कर दिया। बात राजा के दरबार तक पहुंच गई। न्यायधीश की कुर्सी पर बैठे राजा के लिए यह बहुत ही मुश्किल मुकदमा था क्योंकि दोनों उन्हीं के बच्चे थे। बहुत विचार विमर्श के बाद निर्णय लिया गया कि बचाने वाला मारने वाले से बडा होता है।
गौतमबुद्ध का हृदय परिवर्तन
महाराज ने इस बात का विशेष ध्यान रखा हुआ था कि कोई दुखी राजकुमार के सामने न आए लेकिन जैसे मानव प्रकृति है सेवको से चूक हो गई। एक दिन गौतमबुद्ध ने घूमते हुए एक वृद्ध को देखा। उन्होंने देखा एक व्यक्ति जिसके दांत टूटे हुए है शरीर बहुत कमजोर है जो कांप रहा है। शरीर पर झुर्रियां पड़ गई है ओर वह व्यक्ति एक डंडे के सहारे से कांपते हुए चल रहा है। जब सेवक से पूछा गया तो उसने बताया कि यह बूढ़ा हो गया है सभी को एक दिन बूढ़ा होना है। गौतमबुद्ध का में परेशान हो गया।
फिर एक दिन वे और आगे तक घूमने के लिए गए। रास्ते में उन्होंने एक बीमार आदमी को देखा। वह रो रहा था शरीर बहुत कमजोर हो चुका था शरीर पीला पड़ गया था आंखे अंदर को धस गई थी। सेवक से पूछने पर पता चला कि वह व्यक्ति बीमार है। गौतमबुद्ध व्याकुल हो गए।
एक दिन वे एक अर्थी को देखते है। चार आदमी एक आदमी को अर्थी पर ले जा रहे थे पीछे बहुत सारे आदमी चले आ रहे थे। सब रो रहे थे। सेवक ने बताया कि यह व्यक्ति मर चुका है यही सत्य है एक दिन सभी को मरना है। यह सुनकर गौतमबुद्ध परेशान हो गए उन्होंने सेवक से पूछा कि सब दुखी और परेशान है तो सुखी कौन है। सेवक ने कहा आप तो राजकुमार है आपको क्या दुख। गौतमबुद्ध व्यथित मन से वापस लौट गए।
अगले दिन जल्दी तैयार होकर गौतमबुद्ध घूमने के लिए निकाल पड़े। उन्हें रोज नई नई चीजें देखने को मिल रही थी। इस दिन वे देखते है कि एक साधु मस्ती में गुनगुनाता हुआ बढ़ा का रहा है शरीर में पूरी फुर्ती ओर चुस्त दुरुस्त, प्रसन्नचित। पूछने पर पता चला कि यह सन्यासी है। राजकुमार ने पूछा यह इतना खुश क्यों है। सेवक ने बताया कि ये भीख मांगकर खाते है इतना कुछ करना नहीं है। मस्त रहते है। जीवन के ज्यादातर सही नियमो का पालन करते है। स्वस्थ रहते है और ज्यादा जीते है। सेवक ने बताया संन्यासियों का राजा भी सम्मान करते है बस उन्हें अपने सभी सवालों का जवाब मिल गया था। वे अपने घर लौट आए ओर अपने पिता को अपनी साधु बनने की इच्छा जाहिर की। पिता ने मना कर दिया और उनका बाहर घूमने जाना भी बंद कर दिया।
सन्यासी जीवन
गौतमबुद्ध बहुत व्याकुल थे उनसे महल में रहा नहीं जा रहा था। एक रात वे अपने दुधमुंहे बच्चे और खूबसूरत पत्नी को सोता हुआ छोड़कर चले गए। घूमते घूमते वे अलार कलाम नाम के साधु के पास पहुंचे। वहां उन्होंने समाधि लगाना और तपस्या करना सीखा। लेकिन वे उस आश्रम में संतुष्ट नहीं थे उन्हें तो दुख और बीमारी, दर्दनाक मृत्यु से दुनियां को मुक्ति दिलाने थी। लेकिन उन्हें इस बात का ज्ञान नहीं था ऐसा कैसे होगा।
वे उस आश्रम को छोड़कर फिर चल दिए। घूमते घूमते वे उरूवेला पहुंचे जहां उन्होंने तरह तरह से तपस्या की। उन्होंने बहुत कम खाकर तपस्या करनी शरू की जब कोई फायदा नहीं हुआ उन्होंने खाना बिल्कुल छोड़ दिया। और तपस्या करने लगे। ६ साल गुजर गए थे इसी प्रकार तपस्या करने में, उम्र लगभग ३५ साल हो गई थी। फिर एक दिन उनके सामने से कुछ औरतें एक गीत गाती हुई उनके सामने से गुजरी। गीत सुनते ही उन्हें अपना मार्ग दिखाई देने लगा। गीत के बोल थे "वीना के तार ठीक से खींचो ढीले नहीं छोड़ना, तभी उसमे से मधुर आवाज निकलेगी और ज्यादा भी मत खींचना वर्ना तार टूट जायेंगे। उनके बात समझ में आ गई कि बीच का रास्ता सही है भूखे रहकर ज्ञान नहीं मिलेगा। अति किसी चीज की अच्छी नहीं होती।
फिर उन्होंने निरंजना नदी के किनारे एक पीपल के पेड़ के नीचे ५५ दिन तक ध्यान लगाया। ५५वे दिन एक सुजाता नाम कि महिला को बच्चा हुआ, वह पीपल के पेड़ पर खीर चढ़ाने के लिए पेड़ के पास अाई, और गौतमबुद्ध को पीपल का मूर्तरूप मान कर उन्हें खीर खिला दी। यह खीर खाकर गौतमबुद्ध ने अपना उपवास तोड़ा। यहां उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। यह स्थान गया के पास था और गौतमबुद्ध के नाम पर वह स्थान बोधगया कहलाया।
सात दिन तक उसी स्थान पर अपने उपदेश देने के बाद उन्होंने वहां से बाहर जाकर प्रचार करना शुरू कर दिया। वे हमेशा संस्कृत के बजाए लोकल भाषा में ही प्रचार करते थे।
गौतमबुद्ध हमेशा सभी को हमेशा "बीच का रास्ता" अपनाने का ज्ञान देते थे। उन्होंने हमेशा सभी को अहिंसा का पाठ पढ़ाया। आनंद उनका प्यारा शिष्य था वे अपने उपदेश उन्हीं को संबोधित करके देते थे।
उन्होंने बोध धर्म बनाया और उसका प्रचार किया। उनके समर्थकों की संख्या बहुत बढ़ गई थी। उनके धर्म का प्रचार चीन कोरिया जापान अफगानिस्तान श्रीलंका आदि देशों में बहुतायत से फैला। उनके समर्थकों की संख्या करोड़ों में थी।
जब वे ८० साल के थे कुंडा नाम के एक लोहार ने उन्हें खीर खिलाई और खीर खाने के बाद वे गंभीर बीमार हो गए और ४८३ ईसापूर्व कुशीनगर में उनका प्रिनिर्वान हो गया।
No comments:
Post a Comment
Please do not enter any spam link in the comment box